कविता

आइना

आइना

आइना भला कब बोलता है! जो देखता है वैसा ही दिखता है! क्या पहचान पाए तुम अपने अस्तित्व को? क्या नहीं देखा तुमने किसी नकाबी व्यक्तित्व को? सिर से पैर तक झूठ का श्रृंगार है। न दया, न करुणा, न किसी से प्यार है। चेहरे पर लगाकर झूठ का मुखौटा, मैं भी हूँ आइने में …

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मेरी माँ, प्रभा

कभी मुझे पढ़ाया,कभी मुझे समझाया। जब भी जीवन का पाठ मैं भूली,मुझे सब याद कराया। आसमान को छूने के प्रयास में,कभी सँभली कभी गिर पड़ी‌। हाथ बढ़ाकर धीरे से अपना,मेरा हौंसला बढ़ाया। जब भी जीवन का पाठ मैं भूली,मुझे सब याद कराया।  कभी मुझे पढ़ाया,कभी मुझे समझाया…   बहुत कठिन था इस जीवन के सार …

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