मुझे विरासत में माँ ने दिए….
चंद ग़ज़लें,कुछ कविताएँ और मोहक लोकगीत।
आज भी मेरे ज़हन ने सँभाले,जैसे हो वे मेरे मीत।
याद है मुझको अपने बचपन की,
नटखट से भोलेपन की।
याद है मुझको चित्रहार और फ़िल्म देखने के पागलपन की।
चित्रहार और फ़िल्म के लिए, माँ को कितना पटाते।
माँ बस हामी भर दे,झटपट सारे काम निपटाते।
जब भी कोई टीवी पर, गीत भरा कार्यक्रम होता,
काॅपी-कलम लिखने को देती, चाहे मन न होता।
तेज़ रफ़्तार से लिखना, जो भी गायिका गीत सुनाए,
मेरी कोशिश होती थी, वो गीत पूरा हो जाए।
उनको खुश रखने की कोशिश, मेरी हमेशा होती,
हर हफ़्ते चित्रहार और पिक्चर मुझे देखनी होती।
धीरे-धीरे मुझ में भी लिखने का गुण आया,
टूटे-फूटे शब्दों को जोड़ कर मैंने शेर बनाया।
डरते-डरते माँ को मैंने अपना शेर सुनाया,
सुनी ध्यान से मेरी रचना,मुझको गले लगाया।
उस दिन से जो चली कलम,आज तलक चलती है,
माँ,तेरे कारण तेरी कविता, कविताएँ लिखती है…